सिद्धराव जय सिंह सौलंकी

सिद्धराव जय सिंह सौलंकी
सिद्धराव जय सिंह सौलंकी

शनिवार, 9 जुलाई 2016

हजार सिंह जाम

हजार सिंह जी जाम


पाकिस्तान से लगती सीमा से सटे जैसलमेर के तनोट क्षेत्र के घन्टियाली माता मंदिर के निकट उन दिनों मुसलमानों की एक ढाणी हुआ करती थी !...उस ढाणी में अला-ताला द्वारा फुरसत से बनाई हुई एक हसीन मोहतरमा से अपने काठोड़ी गाँव के एक पड़िहार सरदार इश्क फरमा बैठे ...चोरी -चुपके मुलाकातें होने लगी आखिर मुलाकातों का यह दौर उस समय थमा जब पड़िहार सा रंगे हाथों धरे गये ....परिणामस्वरूप उनको मोहतरमा से निकाह कर जान बचानी पड़ी ....उस सरदार ओर मोहतरमा के इश्क का परिणाम था उनका बेटा -सच्चू .!वह खुद भी अपने आपको पड़िहार मुस्लिम कहता था .....बड़ा दुष्ट प्रवृति का था ....अपने भांजे के साथ चल पड़ा इशावल (गज सिंह जाम का कुआँ) के पास   "तला" (कुआँ) खोदने के लिए जो की खालत सरदारों की भूमि थी ....यह सुनते ही आस पास के  सभी खालतो सरदारों ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया ...विरोध के कारण वह तला नहीँ बना सका ....बाद में वह जैसलमेर कलेक्टर से अनुमति लेकर ...गाजे -बाजे के साथ रामगढ़ के निकट से गुजरा .....सचु के साथ उसका भांजा मियल भी था .....

जाम हजारसिंह जी उन दिनों जैसलमेर तहसील में ऊँट .सवार थे ....वीरता ओर साहस की मिसाल थे ...उनको जब इसकी ख़बर मिली तो उनका खून खौल उठा ......उसी समय वो निकल पड़े  ...हजार सिंह जाम के साथ सोहन सिंह सोलंकी रामगढ और एक नेतसी गांव के सोलँकी सरदार भी थे ।


"सुरविं डहरी मायथि री,सचु मियल साथ
सड़फ पुगो नर सोनडो,हजार सिंह बताया हाथ"


जब सच्चू बिना माने लड़ने पर आतुर हो गया ....तो इस शेर ने अदम्य साहस के साथ रामगढ से सात कोस दूर स्थित माइथी जी की डहरी(स्थान का नाम)  के पास लड़ते हुए उन दोनों का काम वहीँ पर तमाम कर दिया ...
 उस समय उनका नाम मात्र सुनकर विधर्मी अपनी पतलून गीली कर देते थे .... इनके ख़ौफ़ का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब इनका निधन हुआ तब  पाकिस्तान के सिंध प्रान्त में विधर्मियों ने ढोल बजाकर,गुड़ बांटकर खुशियाँ मनाई थी.... हजार सिंह तो यह विष-बेल पनपने ही नहीँ देना चाहते थे....
... ....जिस भूमि को बचाने के लिये हजार सिंह जी ,,शेर बहादुर सिंह जी आदि ने तलवारें उठाई ...जो कभी उनके पैरों तले थी ...आज नहर आने के बाद सरकारी आवंटन के खेल में .... ...बाहरी लोग कब्जा कर रहे है ..ओर फाईलो की कतार में हम सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगा रहे है ......

साभार- लाल सिंह जी राघवा

बहादुरी के पर्याय माना और शंकर

रामगढ-तनोट सड़क मार्ग पर स्थित जुझार माना, शंकर के थान

दूर से किले की भव्यता को देख वे चकित रह जाते है | पीले पत्थर पर पड़ती रश्मियाँ स्वरण दुर्ग का आभास दे रही है | निनानवें बुर्जों व् विशाल ऊँचा व् भव्य दुर्ग आकाश में सर उठाये किसी आकर्षक योद्धा की तरह खड़ा है | दूर से घर आ रही मवेशियों से धूल की चादर तन आई थी | यह चादर किले से नीचे शहर को ढके हुए थी | इस चादर पर साँझ के चूल्हों का धूंआ तैर रहा था | किले के कोटरों से कबूतरों के झुण्ड अविकल उड़ाने भर रहे थे | धूल और धुंए की छत के पार ऊपर देखने पर लगता था जैसे किले और हवेलियों के सर आकाश में गुम हो गए है...इसी दुर्ग के पूर्वी द्वार अखे प्रोल् के पहरेदार थे ....माना और शंकर ...!माना और शंकर बीदा और जाम खालतौ के पूर्वज थे ...वीरता और साहस में उनका कोई सानी नहीँ था ..वे जैसलमेर दरबार के सबसे कुशल और प्रिय पहरेदार थे ....उनकी वीरता का उदाहरण बीकानेर के साथ हुए युद्ध में मिलता है ...उदयपुर में महाराज गजसिंह जी के अपमान का परिणाम था यह युद्ध ....इस युद्ध में इन दोनों रणबांकुरे अपनी युद्ध कौशल से दुश्मनों के दाँत खट्टे करते हुए शत्रु सेना को कई कोसों दूर तक खदेड़ते हुए अपने महाराज के अपमान का बदला लेते है ..उनजेसे बहादुरों के साहस की बदौलत यह युद्ध जैसलमेर जीत जाता है ...
उनकी वीरता से प्रसन्न होकर महाराज उनको जागीर देते है .....कुछ समय बाद जब मियॉं खालतौ के गाँव में मुस्लिम आक्रमण होता है तो ये दोनों वीर अपने भाइयों की रक्षा के लिये अदम्य साहस के साथ दुश्मनों का मुकाबला करते है ...इस बीच माना को गोली भी लग जाती है ....और प्रतिशोध की ज्वाला में दहक रहे शंकर ने अकेले एक साथ कई शत्रुओं के सिर धड़ अलग किये और गाँव की रक्षा की ..धन्य है इस रेगिस्तान की मिट्टी में जन्मे ऐसे वीर !
रामगढ़ और जैसलमेर में बनी माना और शंकर की हवेलिया आज भी उनकी वीरता की प्रेरणा देती है .....

साभार- लाल सिंह जी राघवा